25 जून के 50 वर्ष : भारत के इतिहास का सबसे काला दिन, वो रात जब लोकतंत्र सिहर उठा

25 जून 1975: जब आपातकाल ने लोकतंत्र को झकझोर दिया

25 जून 1975 की रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा मोड़ थी, जिसने संविधान, अभिव्यक्ति की आज़ादी और नागरिक अधिकारों को गहरे संकट में डाल दिया। इसी रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रेडियो के माध्यम से देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा की। इस फैसले ने देश को असाधारण हालात में धकेल दिया और लोकतांत्रिक संस्थानों की स्वतंत्रता को गंभीर चुनौती दी।

क्यों लगा आपातकाल?

उस समय देश में महंगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक जनआंदोलन चल रहा था, जिसका नेतृत्व समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। साथ ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को अवैध घोषित कर दिया था, जिससे उनकी राजनीतिक स्थिति अस्थिर हो गई थी। सत्ता बचाने की कोशिश में उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लागू कर दिया।

आपातकाल के प्रभाव:

  • मौलिक अधिकारों का निलंबन: नागरिकों की बोलने, लिखने और इकट्ठा होने की आजादी छीन ली गई।
  • प्रेस सेंसरशिप: समाचार पत्रों पर सरकार की मंजूरी के बिना कोई खबर नहीं छप सकती थी। कई अखबारों ने विरोधस्वरूप संपादकीय पन्ने खाली छोड़े।
  • गिरफ्तारियां: हजारों विपक्षी नेता, पत्रकार, लेखक और कलाकार जेलों में डाल दिए गए। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे नेता बंदी बनाए गए।
  • जनता पर दबाव: पूरे देश में भय और सन्नाटा फैल गया। गांव-गांव तक आपातकाल की कठोरता महसूस की गई।

अंत और जनमत की ताकत:

21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ और चुनाव कराए गए। इस चुनाव में जनता ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार को करारी शिकस्त दी। जनता पार्टी सत्ता में आई और मोरारजी देसाई देश के नए प्रधानमंत्री बने। इस ऐतिहासिक जीत में उन लाखों लोगों की भूमिका थी जिन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष किया।

25 जून 1975 की रात एक चेतावनी है कि लोकतंत्र को हमेशा सतर्कता और जनभागीदारी की जरूरत होती है।

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