SIR पर दोहरा मापदंड क्यों? कभी जिसे बताया ‘समाजिक न्याय का कदम’, चुनाव आते ही दिखने लगा ‘षड्यंत्र’

बिहार में मतदाता सूची पुनरीक्षण पर विवाद: राजनीति या लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर अविश्वास?


हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाना अब एक स्थायी राजनीतिक चलन बनता जा रहा है। विपक्षी दलों द्वारा बार-बार लगाए जाने वाले आरोपों की यही पुनरावृत्ति अब बिहार में भी देखी जा रही है, जहां राज्य में सामान्य मतदाता सूची पुनरीक्षण की प्रक्रिया शुरू होते ही विवाद खड़ा हो गया है।

मतदाता सूची पुनरीक्षण: क्या है प्रक्रिया?
भारत निर्वाचन आयोग के अनुसार, बिहार में 1 जुलाई 2025 से मतदाता सूची का वार्षिक विशेष पुनरीक्षण शुरू किया गया है। यह प्रक्रिया हर साल 1 अक्टूबर की संदर्भ तिथि के आधार पर होती है, जिसका उद्देश्य 18 वर्ष से अधिक उम्र के नागरिकों को सूची में जोड़ना, मृत या स्थानांतरित मतदाताओं को हटाना तथा जानकारी में आवश्यक सुधार करना होता है।

बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) घर-घर जाकर फार्म 6, 7 और 8 के माध्यम से यह जानकारी एकत्र करते हैं। इसमें नागरिक का नाम, पता, उम्र और पहचान पत्र से जुड़ी जानकारी ली जाती है, न कि जाति या धर्म से संबंधित कोई सूचना।

विपक्ष के आरोप और तथ्य
कांग्रेस और राजद जैसे दलों ने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग मतदाता सूची के नाम पर जातीय और धार्मिक जानकारी इकट्ठा कर रहा है, जो भविष्य में सत्ताधारी दल के हित में प्रयोग हो सकती है। परंतु चुनाव आयोग ने इन आरोपों को पूरी तरह से खारिज करते हुए स्पष्ट किया है कि यह प्रक्रिया पूरी तरह तकनीकी, नियमित और पारदर्शी है।

यह विडंबना ही है कि जब 2023 में बिहार सरकार ने स्वयं जातीय जनगणना करवाई थी, तो इन्हीं दलों ने उसका स्वागत किया था। लेकिन अब वही प्रक्रिया यदि निर्वाचन आयोग की निगरानी में होती है, तो उसे “षड्यंत्र” बताया जा रहा है।

क्या युवा मतदाता हैं कारण?
बिहार की राजनीति लंबे समय से जाति आधारित समीकरणों पर आधारित रही है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में एक नया मतदाता वर्ग उभरा है — युवा और पहली बार मतदान करने वाले नागरिक, जिनकी प्राथमिकताएं शिक्षा, रोजगार और विकास हैं।

2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा और जदयू को भारी समर्थन मिला, जिसमें इस वर्ग की भूमिका अहम रही। हर साल राज्य में औसतन 15-20 लाख नए मतदाता जुड़ते हैं, जो पारंपरिक वोट बैंक की गणनाओं को प्रभावित कर सकते हैं। यही कारण है कि कुछ दल इस प्रक्रिया से असहज महसूस कर रहे हैं।

संविधानिक संस्थाओं पर अविश्वास क्यों?
चुनाव आयोग, संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत स्थापित एक स्वायत्त संस्था है, जो दशकों से निष्पक्ष चुनावों के लिए जानी जाती है। आयोग ने स्पष्ट किया है कि न तो किसी नए सर्वेक्षण की योजना है और न ही किसी अतिरिक्त या गोपनीय जानकारी की मांग की गई है।

जाति या धर्म संबंधी जानकारी मांगना आयोग की नीति और दिशानिर्देशों के खिलाफ है। फिर भी बिना किसी प्रमाण के आयोग की मंशा पर सवाल उठाना न केवल असंवैधानिक है बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को भी चुनौती देने जैसा है।

राजनीति या रणनीति?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि विपक्ष पहले से ही संभावित चुनावी पराजय की भूमिका तैयार कर रहा है। मतदाता सूची में गड़बड़ी का आरोप इस कथित हार का बहाना बन सकता है। यदि विपक्ष के पास ठोस प्रमाण होते, तो उन्हें कानूनी कार्यवाही या आधिकारिक शिकायत करनी चाहिए, न कि केवल प्रेस बयानों और सोशल मीडिया के सहारे भ्रम फैलाना चाहिए।

नागरिकों की भूमिका और लोकतंत्र की ज़रूरत
इस पूरी बहस में सबसे अहम भूमिका जनता की है — विशेषकर युवाओं की। यदि आप 18 वर्ष या उससे अधिक उम्र के हैं, तो यह उपयुक्त समय है अपने मतदाता अधिकार का प्रयोग सुनिश्चित करने का। निर्वाचन आयोग ने इसके लिए कई सरल डिजिटल और ऑफलाइन माध्यम उपलब्ध कराए हैं।

मतदाता सूची का अद्यतन केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि लोकतंत्र की बुनियादी संरचना को सशक्त बनाने का एक माध्यम है। इस पर अविश्वास जताना केवल एक संस्था नहीं, लोकतंत्र के पूरे ढांचे पर प्रश्नचिह्न लगाने जैसा है।

निष्कर्ष: विश्वास, भागीदारी और विवेक की पुकार
बिहार में मतदाता सूची को लेकर उठे विवाद से यह स्पष्ट होता है कि यह एक राजनीतिक शिगूफा अधिक है, न कि कोई वास्तविक संवैधानिक संकट। लोकतंत्र में आलोचना आवश्यक है, लेकिन वह तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित होनी चाहिए।

भारत का लोकतंत्र तब और मजबूत होगा, जब नागरिक संस्थाओं पर विश्वास रखें, अफवाहों से दूर रहें और जिम्मेदार भागीदारी निभाएं। विपक्ष हो या सत्ता पक्ष — लोकतंत्र का मूलमंत्र है विवेक, विश्वास और सक्रिय सहभागिता, न कि बेबुनियाद आरोप और पूर्वनिर्धारित हार की रणनीति।

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